संवैधानिक मान्यता नहीं मिलने के कारण राजस्थानी साहित्य का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया : माली - Khulasa Online संवैधानिक मान्यता नहीं मिलने के कारण राजस्थानी साहित्य का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया : माली - Khulasa Online

संवैधानिक मान्यता नहीं मिलने के कारण राजस्थानी साहित्य का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया : माली

बीकानेर। वरिष्ठ कवि-आलोचक कुंदन माली ने कहा है कि राजस्थानी भाषा को मान्यता नहीं मिलने के कारण इस भाषा के साहित्य का अपेक्षाकृत दूसरी संवैधानिक मान्यता प्राप्त भाषाओं जैसा विकास नहीं हुआ है। अगर राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता मिली होती तो इस भाषा के साहित्य का रूप ही दूसरा होता और इस तरह आलोचना परंपरा का भी विकास होता। माली ने यह उद्गार साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा आयोजित वेबलाइन शृंखला में व्यक्त किये। यह वेबलाइन शृंखला राजस्थानी आलोचना : वर्तमान व भविष्य विषय पर आयोजित की गई। उन्होंने कहा कि राजस्थानी साहित्य में आलोचना का व्यवस्थित रूप सामने नहीं आता। यही वजह है कि आलोचना को लेकर किताबें भी बहुत कम आई हैं। माली ने कहा कि राजस्थानी आलोचना को एक विधा मानते हुए इस दिशा में लोग आएं और सृजित साहित्य पर अपनी दृष्टि प्रदान करें। माली ने कहा कि इस बात की जरूरत है कि राजस्थानी भाषा में सभी विधाओं पर एक दृष्टिकोण के साथ काम हो ताकि भाषा की मान्यता का मार्ग प्रशस्त हो सके।
कार्यक्रम के प्रारंभ में राजस्थानी भाषा परामर्शक मंडल के संयोजक मधु आचार्य आशावादीÓ ने कहा कि ऐसा दूसरी बार हुआ है कि आलोचना जैसे विषय पर एक वेबिवान की योजना बनाई गई है, क्योंकि किसी भी भाषा में रचे जाने वाले साहित्य की गुणवत्ता का सबसे बड़ा आधार आलोचना ही होती है। आलोचना विधा के माध्यम से ही साहित्य का विकास हो सकता है। यही सोचते हुए ही इसकी योजना बनाई गई है। उन्होंने इस बार पर प्रसन्नता जताई कि राजस्थानी भाषा के पास विभिन्न विधाओं के बेहतर आलोचक हैं, जो बेहतर कार्य कर रहे हैं। आचार्य ने कहा कि किसी भी भाषा में समृद्ध आलोचना ही उस भाषा में रचे जाने वाले साहित्य की गुणवत्ता का कारण होती है। राजस्थानी साहित्य में आलोचना के अभाव को दूर करना बहुत जरूरी है।
कथेतर साहित्य पर अपनी बात रखते हुए पत्रकार-व्यंग्यकार कृष्णकुमार आशु ने कहा कि राजस्थानी में कथेतर साहित्य की कई विधाओं में तो अभी तक उल्लेखनीय कार्य ही नहीं हुआ है, ऐसे में यहां आलोचना की बजाय पहले तो इन विधाओं में सृजन होना चाहिए। उन्होंने कथेतर साहित्य में अधिक काम की जरूरत जताई।
इस अवसर पर कहानी विधा पर आलोचना की संभावना को उकेरते हुए कहा कि राजस्थानी में कहानी की आलोचना की एक सुदीर्घ परंपरा है, लेकिन अब जरूरत है कि दूसरी भारतीय व विदेशी भाषाओं में कहानी में जिस तरह के परिवर्तन हो रही हैं, उसी दृष्टि से राजस्थानी कथा साहित्य की भी आलोचन हो।
कवि-आलोचक डॉ.नीरज दइया ने कहा कि कविता की आलोचना का काम बड़ा ही मुश्किल है, क्योंकि किसी भी कविता की किताब कईं कविताएं होती हैं, सभी के अपने-अपने रंग होते हैं। उन्होंने कहा कि आलोचना के नाम पर सिर्फ लीक नहीं पीटी जाए बल्कि बदलाव के अवदान भी बताए जाएं।
कवि-समीक्षक राजेश कुमार व्यास ने उपन्यास पर अपनी बात करते हुए कहा कि राजस्थानी में उपन्यास लेखन दूसरी कई भारतीय भाषाओं से पहले शुरू हो गया, लेकिन अपेक्षाकृत विकास नहीं हो सका। इसलिये उपन्यास कम हैं। उपन्यास पर आलोचना भी कम हुई है। दूसरी ओर पढऩे में घटती रुचि लोगों को उपन्यास से दूर कर रही है, ऐसे में जरूरी है कि कुछ नये कथानक सामने आएं।
कार्यक्रम का संचालन अकादेमी की कार्यक्रम अधिकारी ज्योतिकृष्ण वर्मा ने किया। इस अवसर पर प्रख्यात लेखक और साहित्य अकादेमी के महत्तर सदस्य प्रो.मनोज दास के देहावसान पर श्रद्धांजलि अर्पित की गई। वर्मा ने बताया कि मनोज दास आधुनिक ओडिय़ा साहित्य के शीर्षस्थ लेखक थे। चालीस से अधिक कृतियों के रचयिता मनोज दास पदमविभूषण अलंकरण से सम्मानित थे।

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