
द्रौपदी मुर्मू के समाज में महिलाएं नहीं करती घूंघट, महिलाएं जब चाहे दे सकती है तलाक






द्रौपदी मुर्मू देश की 15वीं राष्ट्रपति चुन ली गई हैं। मुर्मू राष्ट्रपति बनने वाली दूसरी महिला और पहली आदिवासी हैं। वह संथाल आदिवासी समुदाय से आती हैं। गोंड और भील के बाद संथाल देश का तीसरा सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है।
झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा संथाल
संथाल को संताल भी कहा जाता है। सांथा का मतलब काम और आला का मतलब मैन होता हैं। यानी शांत व्यक्ति। संथाल समुदाय के ज्यादातर लोग झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में रहते हैं। द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के मयूरभंज जिले से आती हैं, जहां बड़ी संख्या में संथाल समुदाय के लोग रहते हैं।
रिटेन रिकॉर्ड की कमी के चलते संथाल समुदाय की ओरिजिन की सही तारीख तो नहीं पता हैए लेकिन माना जाता है कि नॉर्थ कंबोडिया के चंपा साम्राज्य से इनका ओरिजिन हुआ है। भाषाविद् पॉल सिडवेल के मुताबिक संथाल 4000 से 3500 साल पहले भारत में ओडिशा के तट पर पहुंचे थे। 18वीं शताब्दी के अंत तक यह एक घुमंतू समूह था, जो धीरे-धीरे बिहार, ओडिशा और झारखंड के छोटा नागपुर पठार में बस गया था।
संथाल जनजाति के लोग संथाली भाषा बोलते हैं। इस भाषा को संथाल विद्वान पंडित रघुनाथ मुर्मू ने ओल चिकी नामक लिपि में लिखा है। ओल चिकी लिपि में संथाली को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया है। संथाली के अलावा वे बंगाली, उड़िया और हिंदी भी बोलते हैं।
जनजातियों में सबसे ज्यादा लिटरेसी रेट संथालों की
आमौतर पर नार्थ ईस्ट के अलावा अन्य राज्यों में रहने वाले जनजातीय समुदायों की लिटरेसी रेट कम होती है, लेकिन संथालों में यह सबसे ज्यादा है। इसका कारण है 1960 के दशक से ही स्कूली शिक्षा के प्रति जागरूकता। यही कारण है कि ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड की दूसरी जनजातियों की अपेक्षा संथाल की लिटरेसी रेट सबसे ज्यादा है। 55.5 प्रतिशत संथाली लोग पढ़े लिखे हैं। इसका असर यह हुआ है कि समुदाय के कई लोग क्रीमी लेयर की सीमा से भी ऊपर उठ चुके हैं।
बहुत ही अलग तरह की परंपराओं को निभाते हैं संथाल
इनमें 12 तरीकों से होता है विवाह
सदाय या रायवर बापला- संथाल जनजाति में दोनों पक्षों के पेरेंट्स की सहमति से होने वाला विवाह।
टुमकि दिपिल बापला- इसमें कम खर्च का प्रचलन यानी बारात में भोज नहीं होता है। गरीब संथालों में यह प्रचलित है।
अपाडगीर बापला या अंगीर बापला- एक प्रकार का प्रेम विवाह। शादी के बाद अंजान जगह पर रहते है। बच्चे के जन्म के साथ ही विवाह को मान्यता मिल जाती है।
ओर.आदेर बापला- जब किसी लड़के और लड़की के बीच शादी से पहले संबंध बन जाता है, तो लड़का जबर्दस्ती लड़की को अपने घर लाकर विवाह रचाता है।
निरबोलोक बापला- संबंध बनने के बाद अगर लड़का शादी से इनकार करता है, तो लड़की जबर्दस्ती लड़के के घर रहने के लिए चली जाती है।
इतुत बापला- इसमें लड़का अपनी पसंद की लड़की की मांग में जबरन सिंदूर भर देता है।
हीराम चेतान बापला- पत्नी से बच्चा नहीं होने पर पति दूसरा विवाह कर सकता है
घरदी जावाय बापला- इसमें लड़की का भाई नाबालिग होता है। ऐसे में लड़के को 5 साल तक घर जमाई बनकर रहना होता है।
गोलायटी बापला – इसमें लड़के व लड़की आपस में भाई.बहन होते है। यानी दो बहनों की दो भाइयों से शादी।
जावाय किरिंज बापला – गर्भवती महिला से शादी करना। बच्चे को पिता का नाम देने के लिए पुरुष को विवाह के लिए खरीदा जाता है।
घर जवाय बापला- लड़की का कोई भाई और न गोतिया होता है। लड़की अपने संबंधियों के साथ बारात लेकर दूल्हे के घर जाती है। लड़के को घर जमाई बनना पड़ता है।
सहाय बापला – इस प्रकार के विवाह में सिंदूर के स्थान पर तेल का प्रयोग होता है। संथाल विद्रोह के पूर्व इस प्रकार का विवाह देखने को मिलता था।
महिलाएं जब चाहें पति को दे सकती हैं तलाक
संथाल समाज में तलाक को टैबू की तरह नहीं देखा जाता। यानी यहां पर तलाक देने पर कोई रोक नहीं है। महिला-पुरुष में से कोई भी तलाक दे सकता है। एक संथाल व्यक्ति अपनी पत्नी को उस स्थिति में तलाक दे सकताए जब वह डायन साबित हो जाए या उसकी आज्ञा का पालन न करें।
वहीं एक संथाली महिला अपनी देखभाल नहीं कर पाने, साथ ही किसी अन्य पुरुष से शादी करने की इच्छा के आधार पर तलाक दे सकती है। हालांकि जिस व्यक्ति से महिला दूसरी शादी करती हैए उसे पहले पति को हर्जाना देना पड़ता है। साथ ही संथाल समाज की बहुएं घूंघट नहीं करती हैं।
पत्नी के गर्भवती होने पर पति किसी जानवर को नहीं मार सकता
संथाल समुदाय में पति के लिए कुछ अनूठे नियम भी हैं, जिनका पालन करना जरूरी है। जैसे पत्नी के गर्भवती होने पर पति किसी जानवर को नहीं मारता और अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होता। संथाल अपने लोक गीत और नृत्य के लिए भी जाने जाते हैं। इसे वे सामुदायिक कार्यक्रमों और समारोहों में करते हैं। वे कामकए ढोलए सारंगी और बांसुरी जैसे म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट बजाते हैं।
संथाल अपने लोक गीत और नृत्य के लिए भी जाने जाते हैं। इसे वे सामुदायिक कार्यक्रमों और समारोहों में करते हैं। वे कामकए ढोलए सारंगी और बांसुरी जैसे म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट बजाते हैं।
संथालों का प्रमुख त्योहार होता है करम
संथाल का प्रमुख त्योहार करम होता है। यह सितंबर और अक्टूबर के महीने में आता है। इसमें वे अपने पैसे को बढ़ाने और सभी शत्रुओं से मुक्त करने की कामना करते हैं। संथालों के बीच शुद्धिकरण प्रक्रिया के बाद अपने घर के बाहर करम के पेड़ लगाने की परंपरा है।
संथाल का प्रमुख त्योहार करम होता है। यह सितंबर और अक्टूबर के महीने में आता है। इसमें वे अपने पैसे को बढ़ाने और सभी शत्रुओं से मुक्त करने की कामना करते हैं। संथालों के बीच शुद्धिकरण प्रक्रिया के बाद अपने घर के बाहर करम के पेड़ लगाने की परंपरा है।
महिलाएं टैटू जरूर बनवाती हैं
अपने सामाजिक उत्थान के बावजूद संथाल आमतौर पर अपनी जड़ों से जुड़े होते हैं। वे प्रकृति के उपासक हैं और उन्हें अपने गांवों में जहेर ;पवित्र उपवनद्ध में पूजा करते देखा जा सकता है। इनकी पारंपरिक पोशाकए पुरुषों के लिए धोती और गमछा और महिलाओं के लिए एक शॉर्ट.चेक साड़ीए आमतौर पर नीली और हरी होती है। साथ ही महिलाएं टैटू भी बनवाती हैं।
संथालों के घर ओलाह को विशेष रंग की वजह से दूर से ही पहचान सकते हैं
संथाल के घरों को ओलाह कहा जाता है। उनके घर की बाहरी दीवारों पर तीन.रंग से एक विशेष पैटर्न बना होता है। नीचे के हिस्से को काली मिट्टीए बीच के हिस्से को सफेद और ऊपरी हिस्से को लाल रंग से रंगा जाता है।
संथाल के घरों को ओलाह कहा जाता है। उनके घर की बाहरी दीवारों पर तीन.रंग से एक विशेष पैटर्न बना होता है। नीचे के हिस्से को काली मिट्टीए बीच के हिस्से को सफेद और ऊपरी हिस्से को लाल रंग से रंगा जाता है।
दामोदर नदी में ही विसर्जित की जाती हैं अस्थियां
दामोदर नदी का संथालों के धार्मिक जीवन में विशेष महत्व है। जब किसी संथाल की मौत होती हैए तो उसकी अस्थियों को दामोदर नदी में ही विसर्जित किया जाता है।
400 गांवों के 50,000 लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ किया था जंग का ऐलान
अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई वैसे तो साल 1857 में मानी जाती है, लेकिन झारखंड के संथाल जनजाति ने 1855 में ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया था। इसे ही संथाल हूल कहा जाता है। संथाली भाषा में हूल का मतलब विद्रोह होता है।
30 जून 1855 को सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में साहिबगंज जिले के भगनाडीह गांव से विद्रोह शुरू हुआ था। 400 गांवों के 50ए000 से अधिक लोगों ने भोलनाडीह गांव पहुंचकर जंग का ऐलान कर दिया था। यहां आदिवासी भाई सिद्धू.कान्हू की अगुवाई में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही अंग्रेज हमारी माटी छोड़ों का ऐलान किया।
इससे घबरा कर अंग्रेजों ने विद्रोहियों को रोकना शुरू कर दिया। जिसका संथालों ने डटकर मुकाबला किया। इस बीच इन्हें रोकने के लिए अंग्रेजों ने क्रूरता की सभी हदें पार कर दीं। सिद्धू और कान्हू को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और उन्हें भोगनाडीह गांव में पेड़ से लटका कर 26 जुलाई 1855 को फांसी दे दी। इन्हीं शहीदों की याद में हर साल 30 जून को हूल क्रांति दिवस मनाया जाता है। इस महान क्रांति में करीब 20ए000 लोगों ने शहादत दी थी।


