
क्या Rajasthan विधानसभा चुनाव में काम करेगा ‘सहानुभूति फैक्टर’, जानें किसका पलड़ा भारी





Jaipur: प्रदेश में तीन सीटों पर विधानसभा के उपचुनाव हो रहे हैं. नाम वापसी की मियाद पूरी होने के साथ ही चुनावी मैदान की तस्वीर साफ हो गई है. हर किसी के जीत के अपने दावे हैं. इन दावों के बीच जीत का एक फैक्टर सहानुभूति को भी माना जा रहा है तो कहा यह भी जा रहा है कि यह पूरा चुनाव ही सहानुभूति फैक्टर का है लेकिन क्या वाकई यह चुनाव सहानुभूति का है और अगर ऐसा है तो सहानुभूति किसके लिए है?
विधानसभा उपचुनाव में सभी पक्ष अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं. इसमें कांग्रेस-बीजेपी (Congress-BJP) से लेकर आरएलपी (RLP) भी शामिल है. चुनावी मुद्दों को भी सभी धड़े अपने तरीके से बता रहे हैं. इन मुद्दों में एक जीत का एक आधार सहानुभूति को भी बताया जा रहा है. कार्यकर्ता भी सहानुभूति की बात करते हैं लेकिन जन चर्चा का मुद्दा यह है कि यह सहानुभूति जीत का आधार किस हद तक बन सकती है? दरअसल, सभी के मन में सवाल यह भी है कि क्या यह सहानुभूति केवल उन्हीं के पक्ष में है जिन्होंने अपने परिजन खोए हैं? या फिर दूसरे लोगों के खाते में भी सहानुभूति का कुछ हिस्सा आ रहा है?
सहाड़ा में कांग्रेस-बीजेपी और आरएलपी बटोर रही सहानुभूति
गायत्री देवी त्रिवेदी, कांग्रेस प्रत्याशी
मेवाड़ में इस समय दो सीटों पर चुनाव हो रहे हैं. एक है भीलवाड़ा (Bhilwara) ज़िले की सहाड़ा तो दूसरी है राजसमन्द (Rajsamand) ज़िले की राजसमन्द विधानसभा सीट. बात सहाड़ा की करें तो यहां उप चुनाव का कारण है कांग्रेस के विधायक रहे कैलाश त्रिवेदी का निधन. कांग्रेस (Congress) ने त्रिवेदी के निधन के बाद परिवार के पक्ष में बनी सहानुभूति की लहर को भुनाने के लिए खुद कैलाश त्रिवेदी की पत्नी गायत्री त्रिवेदी को ही टिकट दिया हालांकि एक दावेदार इसी परिवार के सदस्य और पूर्व विधायक के भाई राजेन्द्र त्रिवेदी (Rajendra Trivedi) भी थे लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना था कि गायत्री त्रिवेदी को अपने पति को खोने के बाद उनके पक्ष में ज्यादा सहानूभूति होगी और चुनाव में इससे कांग्रेस को बढ़त भी मिलेगी.
डॉ. रतनलाल जाट, बीजेपी प्रत्याशी
गायत्री त्रिवेदी की तरह बीजेपी के प्रत्याशी डॉक्टर रतनलाल जाट के लिए भी यहां के लोगों में सहानुभूति दिख रही है. दरअसल, त्रिवेदी अपने प्रचार के दौरान मौजूदा उप-चुनाव को अपना अन्तिम चुनाव बता रहे हैं और 72 बसन्त पार कर चुके जाट के लिए सहानुभूति का यही बड़ा आधार भी बन रहा है. रतनलाल जाट के कुछ समर्थकों का कहना है कि 1998 के विधानसभा चुनाव के बात उन्होंने कोई चुनाव नहीं जीता है. लिहाजा इस बार अन्तिम चुनाव होने के कारण जनता में उनके प्रति भी सहानुभूति है.
बद्रीलाल जाट, आरएलपी प्रत्याशी
इसी तरह सहाड़ा में तो आरएलपी प्रत्याशी बद्रीलाल जाट के समर्थक भी सहानुभूति बटोरने की कोशिश कर रहे हैं. दरअसल बद्रीलाल जाट साल 2018 के विधानसभा चुनाव के समय बीजेपी प्रत्याशी रहे रूपलाल जाट के रिश्ते में भाई लगते हैं. अपने कुनबे के भाई रूपलाल के लिए पिछली बार चुनाव मैनेजमेन्ट बद्रीजाट ने ही संभाला था. ऐसे में पिछली बार रूपलाल की हार और इस बार टिकिट नहीं मिलने के बाद बद्री भी सहानुभूति का थोड़ा हिस्सा अपने पक्ष में करना चाहते हैं.
राजसमन्द में भी दिख रहा सहानुभूति फैक्टर
दीप्ति माहेश्वरी, बीजेपी प्रत्याशी
मेवाड़ा अंचल की दूसरी सीट राजसमन्द पर भी सहानुभूति का फैक्टर दिख रहा है. यहां बीजेपी ने पूर्व मन्त्री और दिवंगत विधायक किरण माहेश्वरी की पुत्री दीप्ती माहेश्वरी को टिकट दिया है. किरण माहेश्वरी (Kiran Maheshwari) के निधन के कुछ दिन बाद ही माहेश्वरी के समर्थक दीप्ती को राजसमन्द से प्रत्याशी बनाये जाने की मांग करने लगे थे. दीप्ति भी नामांकन से लेकर चुनाव प्रचार के दौरान कई मौकों पर भावुक नज़र आईं. अपनी दिवंगत मां किरण माहेश्वरी को याद करते हुए मंच पर दीप्ति की आंखें नम हुई तो कार्यक्रम में आई कुछ महिलाएं भी अपने आपको नहीं रोक पाई. ऐसी कुछ तस्वीरों को देखने के बाद बीजेपी भी इस चुनाव को सहानुभूति का चुनाव मानने लगी है.
तनसुख बोहरा, कांग्रेस प्रत्याशी
बीजेपी प्रत्याशी दीप्ति के लिए उनकी मां को लेकर सहानुभूति है तो कांग्रेस प्रत्याशी तनसुख बोहरा का कैम्प भी इस मुद्दे पर सजग है. पहली बात तो यह कि बोहरा अभी तक दिवंगत किरण माहेश्वरी को लेकर ज्यादा कुछ नहीं बोल रहे हैं. उनका कहना है कि किसी दिवंगत आत्मा के प्रति वे कुछ नहीं कहना चाहते. उनके इस बयान से लोग प्रभावित हो रहे हैं. इसके साथ ही अपने नेता के समर्थन में स्थानीयवाद की सहानुभूति बटोरने के लिए तनसुख बोहरा के कार्यकर्ताओं का कहना है कि स्थानीय होने के नाते लोगों का साथ कांग्रेस प्रत्याशी को मिलेगा.
मनोज मेघवाल, कांग्रेस प्रत्याशी
उपचुनाव की सहानुभूति की लहर सुजानगढ़ क्षेत्र में भी ज़ोरों पर है. एक तो कांग्रेस प्रत्याशी मनोज मेघवाल का सरल स्वभाव और दूसरा उनके परिवार में हुआ व्यक्तिगत नुकसान भी मनोज के पक्ष में सहानुभूति का बड़ा आधार बना है. स्थानीय लोगों में चर्चा है कि मनोज राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं है. साथ ही लोगों का मानना है कि मास्टर भंवरलाल मेघवाल की राजनीतिक विरासत का उत्तराधिकारी भी उनकी पुत्री बनारसी मेघवाल ही थीं लेकिन मास्टरजी के अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान पहले बनारसी का निधन और फिर मास्टरजी के चले जाने से मनोज मेघवाल के पक्ष में दोहरी सहानुभूति दिख रही है. मनोज खुद इस बात को कह चुके हैं कि प्रचार के दौरान उनके पिता का आशीर्वाद भी उनके साथ है.
खेमाराम मेघवाल, बीजेपी प्रत्याशी
बीजेपी प्रत्याशी खेमाराम मेघवाल भी सरल स्वभाव के हैं और उनका स्वभाव ही उनकी एसेट माना जाता है. मनोज के पक्ष में सहानुभूति लहर की बात करते ही खेमाराम के समर्थक कहते हैं कि पिछला विधानसभा चुनाव हारने के बाद लोग खुद मानते हैं कि एक बार कांग्रेस और एक बार बीजेपी को जिताने वाली जनता इस बार बीजेपी के पक्ष में आ सकती है. खेमाराम के समर्थकों का कहना है कि पिछली बार संतोश मेघवाल ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में 38 हज़ार से ज्यादा वोट लिये थे लेकिन अबकी बार संतोष खुद बीजेपी में है. इसके साथ ही खेमाराम की विनम्रता को भी बीजेपी कार्यकर्ता उनके पक्ष में माहौल बनाने और सहानुभूति बटोरने के लिए आगे रख रहे हैं.
क्या प्रत्येक उप-चुनाव सहानुभूति का उपचुनाव होता है?
तीन सीटों पर मौजूदा उपचुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के प्रत्याशियों के समर्थकों की तरफ़ से अपने-अपने पक्ष में सहानुभूति के दावों के बाद सवाल यह उठता है कि क्या सभी चुनाव सहानुभूति के चुनाव होते हैं? और अगर ऐसा होता है तो जिसके पक्ष में ज्यादा सहानूभूति होती है उसका जीतना तय है. लेकिन उपचुनाव का हालिया इतिहास देखें तो ऐसा होने की कोई शर्तिया अनिवार्यता नहीं है.
पिछले दो उपचुनाव में एक सीट पर सहानुभूति जीती लेकिन दूसरी पर हारी
मौजूदा विधानसभा के कार्यकाल में प्रदेश में दो सीटों पर साल 2019 में भी उपचुनाव हो चुके हैं. झुंझुनूं ज़िले की मण्डावा और नागौर की खींवसर विधानसभा सीट पर उपचुनाव का कारण बना था यहां के विधायकों का सांसद चुना जाना. पूर्व विधायक नरेन्द्र खींचड़ झुंझूनूं से और हनुमान बेनीवाल के नागौर से सांसद बनने के बाद यहां उपचुनाव हुए थे. इसमें भी मण्डावा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी रीटा चौधरी के पक्ष में सहानुभूति तो रीटा ने उसे भुनाया लेकिन खींवसर सीट पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों में से नारायण बेनीवाल और पूर्व मन्त्री हरेन्द्र मिर्धा में से सहानुभूति तो मिर्धा के पक्ष में ज्यादा थी लेकिन वे उसे जीत में नहीं बदल सके.
यह कोई स्थापित तथ्य नहीं है कि सिर्फ सहानुभूति के दम पर ही चुनाव जीते या हारे जाते हों. अगर ऐसा होता तो किसी जनप्रतिनिधि के निधन के बाद खाली होने वाली सीट पर उसके परिजनों के सामने प्रत्याशी ही नहीं उतारा जाता. ऐसे में यह भी तय है कि हर चुनाव अलग चुनाव होता है और उसमें पार्टी की रणनीति के साथ ही उनकी तरफ़ से उठाये जाने वाले मुद्दे जनता को किस हद तक छूते हैं. इसी पर किसी प्रत्याशी की हार या जीत निर्भर करती है.


