
बीकानेर में एलियन जैसे दिखाई देने वाले जुडवा बच्चे हुए पैदा, आखिर कौनसी बीमारी से पीड़ित है और क्यों होता है ऐसा? , देखे वीडियो







बीकानेर में एलियन जैसे दिखाई देने वाले जुडवा बच्चे हुए पैदा, आखिर कौनसी बीमारी से पीड़ित है और क्यों होता है ऐसा? , देखे वीडियो
खुलासा न्यूज़। बीकानेर में चार दिन पहले दुर्लभ बीमारी के साथ जुड़वा बच्चों का जन्म हुआ। इनमें एक लड़की और लड़का है। इनकी स्किन प्लास्टिक जैसी है। नाखून की तरह हार्ड होकर चमड़ी फटी हुई है। ये बच्चे हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस नाम की दुर्लभ बीमारी से पीड़ित हैं। डॉक्टर्स का दावा है कि हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस बीमारी के साथ पैदा हुए सिंगल बच्चे पहले भी ट्रीटमेंट के लिए आ चुके हैं। लेकिन, जुड़वा बच्चों का यह देश में संभवत: पहला मामला है। यह बीमारी रेयर डिजीज में आने वाले रोगों में है। 5 लाख में से एक बच्चे में यह आनुवांशिक बीमारी पाई जाती है। डॉक्टरों के अनुसार, जरूरी नहीं कि यह रोग माता-पिता को हो चुका हो। क्रोमोसोम संक्रमित होने से माता-पिता से यह रोग बच्चों में आता है। यानी माता-पिता इसके वाहक तो हैं, लेकिन कौनसी पीढ़ी से यह रोग चला आ रहा है, यह मेडिकल हिस्ट्री के जरिए ही पता लगाया जा सकता है।
स्किन कठोर है और दरारें हैं
हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस से पीड़ित जुड़वा बच्चों का जन्म 3 नवंबर को बीकानेर के नोखा के प्राइवेट अस्पताल में हुआ। इनकी स्किन नाखून के हल्के गुलाबी रंग की तरह है जो एकदम कठोर है। इनके बीच की दरारें गहरी हैं, जो अंदर तक फटी हुई हैं। जन्म के बाद गंभीर हालत होने के कारण 5 नवंबर को उन्हें बीकानेर के पीबीएम अस्पताल में रेफर किया गया था। दोनों बच्चों की जान बचाने के लिए PBM हॉस्पिटल के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. जीएस तंवर, शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. कविता और चर्म रोग विभाग के डॉक्टरों की टीम लगी है।दोनों बच्चों को नोखा में 2 दिन चले इलाज के बाद बीकानेर के PBM अस्पताल लाया गया, जहां इनका इलाज किया जा रहा है।
5 लाख में से 1 को होती है बीमारी
PBM अस्पताल के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉक्टर जीएस तंवर ने बताया- परिजन गंभीर हालत में बच्चों को लेकर 5 नवंबर को यहां आए थे। इसके बाद से उनका इलाज अस्पताल के NICU में किया जा रहा है। हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस आनुवांशिक बीमारी है, जो 5 लाख बच्चों में से किसी एक को होती है। जुड़वा बच्चों का देश में यह संभवत: पहला मामला है। इस बीमारी के साथ बच्चे डेढ़ साल तक ही जिंदा रह पाते हैं। कई बार 25 साल तक भी… लेकिन, जीवन सरल नहीं होता। पहले साल तक बच्चों की त्वचा लाल रहती है, जोड़ों में सिकुड़न और उनके अंग विकसित होने में देरी होती है। जन्म के समय बच्चों की स्किन से खून का रिसाव भी होता है। शिशु रोग विशेषज्ञ जीएस तंवर ने बताया- दोनों की स्थिति सामान्य नहीं है। दोनों को तब तक अस्पताल में रखा जाएगा, जब तक कि ये नॉर्मल नहीं हो जाते। सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज का डर्मेटोलॉजी डिपार्टमेंट भी इन बच्चों के इलाज में सहयोग कर रहा है। इन्हें एक प्लेट में रखा गया है, जहां इन्हें तरल पदार्थ देकर जीवित रखने की कोशिश की जा रही है।
माता-पिता स्वस्थ तब भी अगली पीढ़ी को खतरा
डॉक्टर जीएस तंवर के अनुसार, हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस बीमारी ऑटोसोमल रिसेसिव जीन के जरिए बच्चे तक पहुंचती है। लोग इस बीमारी के बिना भी इसके वाहक हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए, अगर किसी के माता-पिता में से किसी एक को यह जीन विरासत में मिला है, तो उनमें से कोई एक या दोनों ही इस बीमारी का वाहक होंगे। यानी माता-पिता को चाहे उनके बचपन में हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस नहीं रहा हो, लेकिन आने वाले बच्चे में यह डिजीज हो सकती है यानी यह कहा नहीं जा सकता कि यह विकार जीन में कौनसी पीढ़ी से आया है। इसलिए इसके केस बेहद कम होते हैं। इस मामले में भी ऐसा ही है। इन बच्चों के मां-बाप को ये बीमारी नहीं है, लेकिन इनमें से कोई एक या दोनों ही इसके वाहक हैं।
डॉ. जीएस तंवर ने बताया- दोनों बच्चों की स्किन को नमी देने के लिए विटामिन-ए की थेरेपी सहित पाइप से दूध फीडिंग दे रहे हैं। यह हमारे लिए बहुत चुनौतीपूर्ण काम है। मेडिकल हिस्ट्री, लिटरेचर और रिसर्च बताती हैं कि इस बीमारी में हंड्रेड परसेंट मॉर्टेलिटी रेट (मृत्यु-दर) है। इसके बावजूद बच्चों की जान बचाने के लिए हर संभव उपाय किए जा रहे हैं। अधिकांश शिशु एक सप्ताह से अधिक जीवित नहीं रहते। जो जीवित रहते हैं वे हाईटेक हेल्थ केयर से 10 महीने से लेकर 25 साल तक जीवित रह सकते हैं।डॉ. तंवर ने बताया- इस मां का पहले भी गर्भ में पल रहा शिशु दम तोड़ चुका है। डॉक्टर्स का मानना है कि यह भी संभव है कि आने वाले समय में होने वाला बच्चा भी इसी बीमारी से पीड़ित हो।


