
बेनीवाल-डूडी साथ नजर आने से राजस्थान में गरमाई सियासत, परदे के पीछे की बड़ी बात आई सामने






खुलासा न्यूज़, बीकानेर। किसान आंदोलन के दौरान रालोपा सुप्रीमो हनुमान बेनीवाल व कांग्रेस के दिग्गज नेता रामेश्वर डूडी साथ नजर आने के राजस्थान की सियासत गरमा गई है। राजनीतिज्ञ अलग-अलग मायने निकाल रहे है।
बता दें कि राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (रालोपा) के सुप्रीमो हनुमान बेनीवाल ने किसान कानून के विरोध में एनडीए से नाता तोड़कर किसानों के साथ होने का दम तो भर दिया लेकिन वो राजस्थान की राजनीति को अलग दिशा में ले जाने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं। अलवर के शाहजहांपुर में जहां बेनीवाल ने एनडीए का साथ छोड़ा था, वहीं कांग्रेस के दिग्गज जाट नेता रामेश्वर डूडी उनका हाथ पकड़ते नजर आए। अलवर में डूडी और बेनीवाल का यह साथ अप्रत्याशित है। क्योंकि फिलहाल दोनों स्वयं को बड़ा जाट नेता साबित करने में लगे हुए हैं। ऐसे में अचानक इस मुलाकात के कई मायने निकाले जा रहे हैं। इस मुलाकात के साथ ही यह साफ हो गया है कि आने वाले दिनों में राजस्थान में किसान आंदोलन को हवा मिल सकती है। डूडी व बेनीवाल दोनों जाट नेता हैं। यही कम्युनिटी राजस्थान में किसानों का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसे में राजस्थान से अब तक सुस्त पड़े किसान आंदोलन को कांग्रेस व रालोपा दोनों का साथ मिलने वाला है। खास बात यह है कि किसान आंदोलन में कूदकर दोनों पार्टियां अपना-अपना हित साधने की कोशिश में रहेगी। पिछले दिनों नई दिल्ली में रामेश्वर डूडी ने राजस्थान के प्रभारी अजय माकन से मुलाकात की थी। पहले तो यह मुलाकात सामान्य लग रही थी। लेकिन डूडी-बेनीवाल के एक साथ दिखने के बाद चर्चा है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व से परमिशन मिलने के बाद ही डूडी ने बेनीवाल की तरफ हाथ बढ़ाया है। डूडी की राहुल गांधी से नजदीकी भी इस आंदोलन के तेज होने की अटकलों को आधार दे रहा है। बताया जा रहा है कि डूडी पिछले दिनों राहुल गांधी से भी मिले थे। किसान आंदोलन के दम पर कांग्रेस व रालोपा दोनों अपना-अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश करेगी। यह साथ किसान आंदोलन तक ही रह सकता है। क्योंकि इसके बाद दोनों बड़े जाट नेताओं को अपना व्यक्तिगत आधार मजबूत करना है। रालोपा के पास किसान आंदोलन ही अपने विस्तार का माध्यम नजर आता है तो कांग्रेस भी अपने मजबूत गढ़ को ढहने से बचाने की कोशिश करेगी। राजस्थान में किसानों का कांग्रेस के साथ झुकाव रहा है। पंचायत चुनाव में करारी हार झेल चुकी कांग्रेस अब यहां नुकसान को भांप रही है।
कांग्रेस व रालोपा का अघोषित यानी परदे के पीछे वाला साथ हो सकता है। क्योंकि, खुले तौर पर बेनीवाल कांग्रेस के साथ नहीं जा सकते हैं। क्योंकि उनकी पार्टी की नींव में कांग्रेस का विरोध है। ऐसे में किसान आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए भी उन्हें इस बात का ख्याल रखना पड़ेगा कि कहीं कांग्रेस सारा श्रेय न ले लें। दरअसल, भाजपा से अलग होने के बाद बेनीवाल को अपने संसदीय क्षेत्र नागौर में भी जनाधार बढ़ाने की जरूरत है। यहां भाजपा ने बेनीवाल के समर्थन में अपना प्रत्याशी नहीं उतारा था, अगले चुनाव में ऐसा नहीं होगा। दो की लड़ाई में नागौर में कांग्रेस को लाभ मिल सकता है। कांग्रेस भी नागौर से ही जाट राजनीति करती आई है। अगर इस आंदोलन के माध्यम से जाटों का ध्रुवीकरण होता है तो यह मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के लिए परेशानी का सबब हो सकता है। राजस्थान में किसान आंदोलन जोर करता है तो इससे न सिर्फ किसान व जाट एक साथ होंगे बल्कि कांग्रेस के जाट नेता भी एक मंच पर रहेंगे। ऐसे में अगर सभी जाट कांग्रेस नेता एक साथ हो गए तो गहलोत के लिए भी संकट खड़ा हो सकता है। माना जा रहा है कि इसी कारण राजस्थान में कांग्रेस सरकार होने के बाद भी किसान आंदोलन ने ज्यादा जोर नहीं पकड़ा। औपचारिक विरोध होता रहा है। बेनीवाल के अलग होने से केंद्र की मोदी सरकार पर तो रत्तीभर असर नहीं पड़ेगा। लेकिन राजस्थान की भाजपा को अगले चुनाव में पसीने आ सकते हैं। वर्तमान में बेनीवाल का बीकानेर, जैसलमेर, नागौर, बाड़मेर व जोधपुर की दो दर्जन विधानसभाओं पर सीधा असर है। जाट प्रदेशाध्यक्ष बनने के बाद भी भाजपा को अगले चुनाव में इस नुकसान को कम करने के लिए अभी से तैयारी करनी होगी। अगर बेनीवाल इस कदम के बाद ज्यादा मजबूत होकर उभरे तो आने वाले दिनों में कांग्रेस के जाट वोटों पर बड़ी सेंध एक बार फिर लग सकती है।


