
आखिर कब होगी पार्षद पति,पिता,पुत्र की यह प्रथा खत्म






कैसे लेगी महिला पार्षद स्वतंत्र निर्णय ओर कब होगी नारी शक्ति सशक्त
जरूरी फैसलों में पति,पिता,पुत्र का होता है दखल, नहीं हो पाते अहम फैसलें
-मनीष सिंघल-
खुलासा न्यूज,बीकानेर। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जब लाल किले की प्राचीर से महिला सशक्तिकरण की बात करते हुए देश में महिलाओं को समाजिक,आर्थिक, शैक्षणिक और राजनैतिक रूप से सुदृढ़ करने की बात कही तो लालकिले की प्राचीर से लेकर समस्त देश में तालियों की गूंज के साथ सभी शियास्त दान और अधिकारी नारी सशक्तिकरण की अगुवाई में लग गया। लेकिन इस बात की सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि राजस्थान में नगर निगम एवं नगर पालिकाओं में महिलों की भागीदारी तो 33 प्रतिशत बढ़ी है। लेकिन काम आज भी पार्षद प्रतिनिधि ही करते है। ऐसे में आधिकारियों की आंखे भी नहीं खुलती जो देश के प्रधानमंत्री के संकल्प को भी पलीता लगाने से भी कोई गुरेज नहीं करते। फिर चाहे बात सत्ता पक्ष की हो या अन्य किसी की। अगर कोई अधिकारी ऐसे मामलों में एक्शन लेता है तो या तो उसे मंत्री या विधायक से फटकार मिलती है या उसका ट्रांसफर कर दिया जाता है। मंच पर भाषण तो खूब दिए जाते है महिला सशक्तिकरण के लिए लेकिन असलियत बिल्कुल इससे परे है। और ये पार्षद प्रतिनिधि की प्रथा कोई नई नहीं है बरसो बरस से चली आ रही है पार्षद पुत्र,पार्षद पिता, पार्षद पति की ये प्रथा आखिर कब खत्म होगी। इसका कोई स्थाई हल तो हमारे राजनेताओं को ही ढूंढना होगा। पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे ने भी कहा था कि मैं चाहती हूं कि प्रदेश में नारी शक्ति सशक्त होकर उभरे और आर्थिक रूप से मजबूत हो। बीकानेर जिले में ऐसे कितने ही वार्ड है जिनमें पार्षद महिलाएं है पर इनकों स्वतंत्र कार्य की अनुमति नहीं मिल रही है। जबकि यहां (पार्षद प्रतिनिधि) के दबाव में कार्य किया जाता है यहां तक की क्षेत्र के सारे अहम फैसले भी पार्षद प्रतिनिधि ही लेता है यह एक गंभीर समस्या है। एक तरफ केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षणिक रूप से सशक्त बनाने के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लिए जा रहे है लेकिन सरकार के इन मंसूबों को पार्षद पति, पिता ,पुत्र (पार्षद प्रतिनधि) ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र में नहीं लागू होने दे रहे है। तों ऐसे में आाखिर कब होगी पार्षद पति, पिता,पुत्र संस्कृति की ये प्रथा खत्म ???
प्रतिनिधि प्रथा हो खत्म
आपने श्लोकों में उमापति, रमापति ,कमलापति, लक्ष्मीपति जैसे नाम सुने हैं।. राष्ट्र का संवैधानिक मुखिया राष्ट्रपति कहलाता है। विश्वविद्यालय में कुलपति और उपकुलपति होते हैं। धनवान लोगों को लखपति करोड़पति,अरबपति कहने की परम्परा रही है,लेकिन यह पार्षद पति, पार्षद पिता, पार्षद पुत्र आखिर क्या बला है ? ये पद आज तक किसी के समझ में नहीं आया? जिसको लेकर अनेक बार सोशल मीडिया या टी वी डिबेट में जंग भी छिड़ी है,सार्वजनिक बहसों में भी इसका विरोध होता रहा है। परन्तु न तो केन्द्र और न ही राज्य सरकार इसको लेकर गंभीर है। हालात यह है कि अबला को सबला बनाने वाले जनप्रतिनिधि ही आज भी पुरूष प्रधान राजनीति के पक्षधर है तो फिर महिला सशक्तिकरण का यह झूठा दिखावा क्यों।
क्या कहती है महिलाएं
वैसे तो महिला सशक्तिकरण को लेकर अनेक कानून बनाएं गये है और सरकारें इसको लेकर खूब दावे करती आई है। परन्तु जब इनको अमलीजामा पहनाने की बात आती है तो फिर से पुरानी परम्पराओं को निर्वहन किया जाता रहा है। ऐसे में महिला सशक्तिकरण की बात बेमानी लगती है। होना यह चाहिए कि महिलाओं को स्वतंत्र रूप से राजनीति पद पर कार्य करने की आजादी हो।
किरणबाला,निवासी एम पी नगर


