
किसान आंदोलन के बहाने राजस्थान का प्रभावशाली किसान नेता बनने की चाह में हनुमान ने भाजपा से तोड़ा नाता






जयपुर। आखिरकार शनिवार को राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी(आरएलपी) के इकलौते सांसद हनुमान बेनीवाल ने भाजपा और एनडीए से नाता तोड़ लिया। इसकी आहट तो हनुमान के बगावती तेवर देख पहले से सुनाई देना शुरू हो चुकी थी। बस इसका ऐलान बाकी था। और आज उन्होंने अलवर के शाहजहांपुर-खेड़ा बॉर्डर पर किसानों के साथ धरना शुरू कर इसकी औपचारिक घोषणा कर दी। किसान आंदोलन के तेजी पकडऩे के बाद हनुमान के पास विकल्प बहुत सीमित रह गया था। उनका सबसे बड़ा आधार किसान वर्ग ही है। वहीं प्रदेश में इस समय प्रभावशाली किसान नेताओं का अकाल पड़ा हुआ है। ऐसे में किसानों का नेता बनने की चाह में अपने बगावती तेवर के लिए प्रसिद्ध हनुमान ने एकला चलने में ही अपनी भलाई समझी और कूद पड़े किसान आंदोलन में।
हनुमान बेनीवाल की पार्टी का मुख्य आधार कृषक समाज में ही है। इस समय प्रदेश की राजनीति में प्रभावशाली किसान नेता नहीं होने से उनके सामने एक किसान नेता के रूप में स्वयं को स्थापित करने का सुनहरा अवसर मौजूद है। इसे ध्यान में रख हनुमान काफी सोच विचार करने के बाद देरी से ही सही किसान आंदोलन में कूद पड़े। किसानों का नेता बनने की उनकी चाह कितनी सफल रहती है यह तो समय ही बताएगा, लेकिन उन्होंने इस बार दांव बड़ा खेला है। हालांकि प्रदेश में केन्द्र सरकार के कृषि पर लाए गए बिल का विरोध बहुत कम है, लेकिन हनुमान अपने स्तर पर अलख जगा किसानों को इसके विरोध में खड़ा कर सकते है।
यदि वे किसानों के एकछत्र नेता बनने में कामयाब रहे तो वे कांग्रेस और भाजपा से अपनी शर्तों पर मोलभाव करने की स्थिति में होंगे। निकट भविष्य में कोई चुनाव भी नहीं है। ऐसे में उन्हें गठबंधन की ज्यादा चिंता भी नहीं सता रही है। हनुमान अच्छी तरह से जानते है कि चुनावी माहौल में गठबंधन वापस बनने में समय भी नहीं लगता। गत लोकसभा चुनाव में नामांकन भरने के दो दिन पहले ही उनका भाजपा से गठबंधन हुआ था।
कांग्रेस व भाजपा को होगा नुकसान
यदि हनुमान स्वयं को एक प्रभावशाली किसान नेता के रूप में काबिज करने में सफल रहते है तो इसका खामियाजा भाजपा और कांग्रेस दोनों को उठाना पड़ेगा। किसे कितना नुकसान पहुंचाएंगे, यह प्रत्येक सीट पर खड़े उम्मीदवारों के आधार पर ही पता चल पाएगा। लेकिन इतना तय है कि भले ही उनका उम्मीदवार जीत नहीं पाए, लेकिन दोनों पार्टियों के हार-जीत के समीकरण को पूरी तरह से गड़बड़ा कर रख देने का माद्दा उनमें अवश्य है।
ऐसे हुई राजनीति की शुरुआत
राजस्थान विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष चुने जाने से लेकर हनुमान ने अपने आक्रामक तेवर के दम पर शुरू से ही अलग छवि बनाना शुरू कर दिया था। इसके बाद उनके राजनीति में प्रवेश करने के समय तक उनके गृह जिले नागौर में नाथूराम व रामनिवास मिर्धा का अवसान हो चुका था। नागौर के मतदाताओं ने हमेशा से दबंग नेता का साथ दिया, चाहे वह किसी पार्टी का हो। नागौर की राजनीति में बरसों तक एकछत्र राज करने वाले नाथूराम मिर्धा की छवि उन्हें हनुमान में नजर आई। इस कारण लोगों ने उन्हें हाथों हाथ लिया और अल्प समय में वे जनता के बीच लोकप्रियता की सीढिय़ा चढऩा शुरू हो गए।
कांग्रेस-भाजपा के खुले थे द्वार
हनुमान के राजनीति में प्रवेश करने के समय कांग्रेस व भाजपा उन्हें अपने साथ जोडऩे को बेताब थी। नाथूराम मिर्धा के निधन के पश्चात उत्तर भारत में कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ नागौर ढहने की कगार पर था। वर्ष 1977 की जनता लहर में जब इंदिरा व संजय गांधी जैसे नेता भी चुनाव हार गए थे, लेकिन पूरे उत्तर भारत में एकमात्र नागौर के लोगों ने नाथूराम मिर्धा को संसद में भेज कांग्रेस की लाज रखी थी। वहीं नागौर में पांव जमाने की फिराक में जुटी भाजपा को एक प्रभावशाली नेता की दरकार थी। आखिरकार हनुमान ने भाजपा के साथ जाने का फैसला किया और खींवसर से विधायक चुने गए।
वसुंधरा के विरोध के कारण नहीं टिक पाए भाजपा में
भाजपा में जाने के बावजूद विधानसभा से लेकर बाहर हर तरफ हनुमान तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के मुखर आलोचक के रूप में उभरे। इस दौरान दोनों के बीच भाषा की मर्यादा को लेकर कटुता काफी बढ़ गई और पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। भाजपा से समझौता होने के बावजूद हनुमान गाहे बगाहे वसुंधरा राजे की खिलाफत करने का कोई मौका हाथ से नहीं गंवाते।
ज्योति मिर्धा के कारण नहीं गए कांग्रेस में
नागौर की राजनीति में मिर्धा परिवार का विरोध कर अपनी छवि बनाने वाले हनुमान पर कांग्रेस ने भी काफी डोरे डाले, लेकिन तत्कालीन सांसद व नाथूराम मिर्धा की पोत्री ज्योति मिर्धा से व्यक्तिगत अनबन के कारण उन्होंने कांग्रेस में जाना उचित नहीं समझा। उस समय उन्होंने व्यक्तिगत बातचीत में साफ कहा भी कि चाहे कुछ भी हो जाए ज्योति को हराना है और कांग्रेस में शामिल होने के बाद ऐसा करना संभव नहीं होगा। सिर्फ इस कारण से उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने से इनकार कर दिया।


