जब एक तरबूज खाने के लिए हजारों लोगों को देनी पड़ी थी जान

जब एक तरबूज खाने के लिए हजारों लोगों को देनी पड़ी थी जान

इतिहास लड़ाई के (history of war) अजीबोगरीब या बेहद बर्बर वाकयों से भरा हुआ है. कहीं दो देशों के बीच, कहीं दो राज्यों के बीच हुई लड़ाइयां दिनों, महीनों तक चलतीं. इस दौरान दोनों तरफ से सैनिक मारे जाते. अक्सर ये लड़ाइयां राज्य की सीमा बढ़ाने को लेकर हुआ करती थीं. लेकिन एक ऐसी भी लड़ाई है, जो तरबूज के लिए लड़ी गई. बीकानेर (Bikaner) और नागौर (Nagaur) की सीमा पर उगे एक तरबूज के लिए दो खेत मालिकों की लड़ाई दो रियासतों तक पहुंच गई.

ये बात शुरू होती है साल 1644 से. तब बीकानेर और नागौर की सीमाएं एक-दूसरे से सटी हुई थीं. बीकानेर का सीलवा गांव और नागौर रियासत का जाखणियां गांव इन दोनों रियासतों को आपस में जोड़ता था. साल 1644 के मई-जून में एक मतीरा यानी तरबूज बीकानेर रियायत के आखिरी गांव में लगाया गया. तरबूज की बेल फैलते-फैलते दूसरी रियासत के सीमावर्ती गांव में पहुंच गई. तरबूज के पकने पर दोनों गांवों के लोगों में उसे लेने को लेकर झगड़ा होने लगा. एक का कहना था कि मतीरा हमारी जमीन पर उगा है. वहीं दूसरे पक्ष का कहना था कि उगा कहीं भी हो, बेल तो हमारे यहां फैली है.

इस बात पर झगड़ा इतना बढ़ा कि दोनों तरफ के गांव के लोग रात-रातभर जागकर पहरा देने लगे कि दूसरे पक्ष के लोग तरबूज न उखाड़ लें. फैसला न हो पाने पर आखिरकार बात दोनों रियासतों तक पहुंच गई और फल पर शुरू ये झगड़ा युद्ध में बदल गया.

इतिहास में इस लड़ाई का हालांकि खुलकर जिक्र नहीं मिलता है लेकिन आज भी राजस्थान के लोगों के बीच मतीरे की राड़ का किस्सा खूब कहा जाता है. यहां राड़ से मतलब है रार यानी लड़ाई. कहा जाता है कि लड़ाई में बीकानेर की सेना का नेतृत्व रामचंद्र मुखिया ने किया था जबकि नागौर की सेना का नेतृत्व सिंघवी सुखमल ने. उस दौरान दोनों ही रिसायतों के राजाओं को तरबूज के कारण हो रही लड़ाई की खबर नहीं थी क्योंकि बीकानेर के तत्कालीन राजा करणसिंह राज्य से बाहर थे, जबकि नागौर के राजा राव अमरसिंह राठौड़ थे, जो उस दौरान मुगल साम्राज्य के लिए एक अभियान पर थे. बता दें कि तब राजस्थान की ये दोनों ही रियासतें मुगलों का आधिपत्य स्वीकार कर चुकी थीं और उनकी बात मानती थीं.

जब राजा राव अमरसिंह राठौड़ लौटे, तो उन्हें मतीरे की राड़ के बारे में पता चला. तुरंत ही अपनी ही रियासत में चल रहे इस युद्ध को रोकने के लिए राजा ने मुगल दरबार में अपील की, हालांकि युद्ध तब तक हजारों सैनिकों की जान ले चुका था. और हां, युद्ध में नागौर के सैनिकों की बुरी तरह से हार हुई और मतीरा आखिरकार बीकानेर के हाथ लगा.

वैसे देश में ही नहीं, विदेशी धरती पर भी अजीबोगरीब युद्ध होते रहे हैं. जैसे एक लड़ाई ऐसी भी है जिसमें यूरोप के ऑस्ट्रिया (Austria) के सैनिकों ने आपस में ही युद्ध किया और 10000 से भी ज्यादा सैनिक मारे गए. कहानी शुरू होती है सितंबर 1788 से, जब ऑस्ट्रिया की सेना यूरोप के कैरनसीब्स (Karansebes) शहर को फतह करने पहुंची. उस वक्त ऑस्ट्रियाई सेना एक खास अंब्रेला के तहत काम करती थी, जिसमें कई राज्य एक साथ मिलकर काम कर रहे थे. इसे हैब्सबर्ग साम्राज्य (Habsburg Empire) कहते थे. इस एंपायर में ऑस्ट्रिया के सैनिकों के साथ ही जर्मनी, फ्रांस, सर्बिया, पोलेंड और चेक रिपब्लिक के सैनिक भी काम कर रहे थे. अलग-अलग भाषाएं होने के कारण इनमें आपस में तालमेल काफी मुश्किल से हो पाता था. यहां तक कि जंग के आदेश एक ही तरीके से सारे सैनिकों तक पहुंचाना मुश्किल था.

17 सितंबर की रात गलतफहमी की शुरुआत हुई. हुआ यूं कि Danube नदी किनारे रात में गश्त करते ऑस्ट्रियाई सैनिकों को रोमानिया के कुछ लोग शराब पीते दिखे. मित्र देश होने की वजह से लोगों ने थके-हारे सैनिकों को शराब पीने का न्यौता दिया. सैनिकों ने हां भी कर दी और बैठकर शराब पीने लगे. शराबनोशी के इसी कार्यक्रम के दौरान गश्त करते कुछ और ऑस्ट्रियाई सैनिक भी आए और उन्होंने भी शराब में हिस्सा मांगा. उस वक्त तक शराब की एक ही बोतल बाकी थी. नशे में चूर हो चुके सैनिक शराब बांटने की बात पर भड़क उठे और लड़ने लगे. बात इतनी बढ़ी कि आपस में गुत्थमगुत्था सैनिक गोलियां चलाने लगे.

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