बाल मजदूरी सभ्य समाज पर कलंक के समान: तेहनदेसर
नन्हे नन्हे बच्चे तेरी मुठी में क्या है, मुठी में है तकदीर हमारी। चार दषक पूर्व यह गीत हमने भारतीय सिनेमा के माध्यम से देखा एवं सुना था। छोटे छोट नन्हे मुने बच्चों को गीत में बाल मजदुरी करते हुए दिखाया गया है। कहते हैं कि जैसा सिनेमा होता है वैसा ही समाज एवं जैसा समाज होता है वैसा सिनेमा। सिनेमा में तो पहले की बजाय अब परिवर्तन आ गया है। फिल्में ब्लेक एण्ड वाईट के स्थान पर रंगीन हो गयी है किन्तु हमारा सभ्य समाज मानो अभी भी काला एवं सफेद रंग का ही है। दोहरी मानसिकता से ग्रसित व्यक्ति अच्छे लिबास पहनते हुए लगातार रूप से नैतिकता एवं सभ्यता की हत्या कर रहे हैं मेरा अभिप्राय यहां देष के प्रभावषाली नौकरषाहों से है। और यह मुद्दा सभ्य समाज के समझ रखने वाले लोगों हेतु सोचनीय विषय वस्तु है।
दिल्ली से लेकर सुदुर गांव एवं ढाणियों तक लम्बा चैड़ा प्रषासनिक लवाजमा या युं कहें कि ढांचा है किन्तु देष के हालात वहीं है जो सन् 1947 के पूर्व के थे और आज हम सन् 2017 में भी वहीं खड़े हैं। ना जाने कितने ही सरकारी अभियान चलाये गये, स्वयं सेवी संस्थाओं एवं एन.जी.ओ. के माध्यम से भी बहुत प्रयास किए गए बाल मजदुरी को रोकने हेतु इसका खात्मा करने हेतु किन्तु यह जटिल समस्या आज भी तटस्थ है। देखने पर जान पड़ता है हालात बिलकुल ही उलट है।
बाज मजदुरी आज भी एक विषालकाय समस्या बनकर सबके सामने है और सभ्य समाज के स्वास्थय हेतु दंष के समान है। गौरतलब है कि सभी सरकारी महकमों, सार्वजनिक स्थानों, बाजारों, रेलवे स्टेषन, बस स्टेण्ड आदि स्थानों पर छोटे बच्चे बाल मजदुरी करते देखे जा सकते हैं। इन सभी स्थानों से नित्य आला अधिकारी अपने वाहनों से गुजरते हैं किन्तु ना जाने वो क्यों आंखें मुंदे हुए हैं। बाल मजदुरी को रोकने हेतु प्रषासनिक उदासीनता पर अत्यधिक क्रोध भी आता है एवं व्यवस्था पर दया भी आती है।
सरकारें या जनप्रतिनिधि सदन क्रमषः लोकसभा, राज्यसभा या विधानसभा के माध्यम से कानून बना सकती है किन्तु उनको पालन करवाने का कार्य तो ब्युरोक्रेट्स यानि की प्रषासनिक अधिकारियों का है और उन्हे यह कार्य दायित्व मानकर करना ही चाहिए। इस पुरे देष में खासकर की अधिकारियों में एक समस्या की अधिकता या कहें की प्रचुरता है कि उनमें आपस में ईगो समस्या है। विरोधाभाष यह है कि हस्ताक्षर या अनुमति जारी करने के स्थान पर बैठे लोग इस देष के स्वयं भू सिरमौर बने हुए है। उनके हिसाब से गलत हो तो चलता है और अगर कोई सही कार्य हो और उनके हिसाब से नहीं हो तो वे पुरजोर तरीके से नहीं होने देगें। उदाहरण के तौर पर हम अगर बाल मजदुरी का मुद्दा उठायेगें तो वे सरकारी आंकड़ों के माध्यम से हमारी बात को दुबाने का पुरा प्रयास करेगें। किन्तु जब वो सार्वजनिक रूप से देख रहे हैं कि छोटे छोटे बच्चे बाल मजुदरी कर रहे हैं उस पर यकीन नहीं करेगें। सभी ज्वलंत मामलों में आला अधिकारी निचले अधिकारी को पत्र देता है रिपोर्ट करने हेतु वो रिपोर्ट कर देता है बस दोनों अपनी अपनी कुर्सी बचाने की जुगत में लगे हुए हैं। इस पुरे देष में प्रषासनिक अधिकारियों द्वारा धरातल पर कार्य करने के बजाय सिर्फ रिपोर्ट करने का कार्य ही किया जा रहा है। मैं समझता हूं सन् 1947 के पश्चात् अगर अधिकारियों ने अपनी 50 प्रतिषत क्षमता का परिचय भी दिया होता तो बाल मजदुरी जैसी गम्भीर समस्या खत्म हो जाती।
साथियों चाय बेचने वाले देष के सर्वोच्च षिखर पर पहुंच जाए यह मायने नहीं रखता है वो वहा पहुंचकर कितने निम्न आयवर्ग के एवं गरीबों के उत्थान हेतु बराबरी के अधिकार हेतु क्या करता है वो मायने रखता है।
बाल मजदुरी बढने के कारण है अषिक्षा, बंेकारी, गरीबी एवं बढ़ती जनसंख्या। एवं इनके उन्मुलन के भी फर्जी सरकारी आंकड़ें दिखा दिखा कर 15 अगस्त एवं 26 जनवरी को देष के अधिकारी पारितोषिक प्राप्त कर रहेे हैं। किन्तु पूर्ण सत्य तो यह है कि जो कटु भी है कि गरीब और गरीब हो रहा है एवं अमीर और अमीर। प्रषासन की अस्पष्ट नीतियों उदासीनता का खामियाजा देष की जनता को लगातार रूप से भुगतना पड़ रहा है।
मेरी एक आला प्रषासनिक अधिकारी से इस ज्वलंत विषय पर बात हुई तो दुसरे ब्युरोक्रेटस के भांति महान बनते हुए उन्होने कहा कि जिनकों ईष्वर ने गरीब बनाया है वो गरीब ही रहेगें और जो अमीर है वे अमीर ही रहेगें। अब ऐसे में ऐसी संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित लोग देष के महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हैं तो परिवर्तन किस प्रकार से होगा।
गरीबी उन्मुलन के सर्वे रसुखदारों से प्रभावित होकर होते हैं, कई बार देखने में आया है गांवों कस्बों में जो लोग प्रभावषाली हैं धनाढय है उनका नाम बीपीएल सुची में होता है और मालुमात होने के बावजुद अधिकारी उन्हे सत्यापित भी करते हैं।
खैर मुल विषय बाल मजदुरी पर आते हैं इसका उन्मुलन सामाजिक रूप से किस प्रकार से हो सकता है यह विचार करने योग्य विषय वस्तु है। प्रषासनिक दम खम तो इस हेतु हम विगत कई वर्षों से दुख ही चुके हैं। सभ्य समाज के लोग जो लोग बाल मजदुरी करवाते हैं उनका बहिष्कार करें, उनको समझाइष करें, उनको पाबन्द करवाएं, उन पर कार्यवाही करने हेतु प्रषासन को लिखें, जरूरत पड़ने पर मामले भी दर्ज करवायें आदि। इस पुरे मसले को खत्म करने हेतु समाज ढान ले मजबुत ईच्छा शक्ति के साथ तो बाल मजदुरी का खात्मा किया जा सकता है। इस देष में गाय की पूजा की जाती है एवं बच्चों को भगवान माना जाता है। पर जिन लोगों के घरों में खुंटे से एक भी गाय नहीं बंधी है वो तो तथाकथित हमारे हिन्दुवादी नेता है जो ललाट पर चन्दन लगाए हर कहीं देखने को मिल जाते हैं। वहीं दुसरी और देष की प्रषासनिक अधिकारी जो नित्य बच्चों को बाल मजदुरी करते देखते हैं। वे उन बच्चों को विद्यालयों में दाखिला करवा सकते हैं, अच्छे वस्त्रों की व्यवस्था कर सकते हैं, भोजन की व्यवस्था कर सकते हैं पर अपनी हठधर्मिता, ईगोे, उदासीनता के कारण नहीं करते हैं और इससे ही बाज मजदुरी को बढावा मिलता है। बाल मजदुरी को मिटाने हेतु मजबुत ईच्छा शक्ति एवं पावन भावना की आवष्यकता है, उदाहरण के तौर राज्य का दुसरा सबसे बड़ा चिकित्सालय पी.बी.एम. के सामने ‘‘रोटी बैंक’’ के नाम से लोग सामुहित नेतृत्व एवं व्यक्तिगत जिम्मेदारी के नाते सेवा का काम लगातार रूप से कर रहे हैं उस तर्ज पर कोई काम हो तो कोई बात हो नही ंतो वही ढाक के तीन पात।
लेखक:- डूंगरसिंह तेहनदेसर, सामाजिक राजनैतिक विचारक बीकानेर देहात।